थक रहे है पाँव लेकिन मन थका लगता नही.
आ रही है सांझ लेकिन पथ चूका लगता नहीं.
कारवां के साथ रहकर मैं अकेला ही रहा ,
ठौर तो मिलते रहे पर घर मिला लगता नहीं.
बीज थे संकल्प के वट-वृक्ष बनने के लिए.
रीढ़ में थी ग्रंथियां यह तन तना लगता नहीं.
बोझ थी यह जिंदगी कुछ बोझ औरों का रहा,
झुक रही सीधी कमर पर सिर झुका लगता नहीं.
प्रश्न चिन्हों में उलझकर रह गए उत्तर सभी,
है यथावत आज भी यह भ्रम मिटा लगता नहीं.
बूँद थे हम बूँद बनकर हर पहर रिसते रहे ,
पूर्ण कब थे कब घटे यह घट भरा लगता नहीं.
बज रहीं शहनाइयां इस मातमी माहौल में
त्रासदी युग की विकट यह स्वर बुरा लगता नहीं।
हिन्दी कविता
Friday, January 11, 2008
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8 comments:
tu bhool hgya mujhhe ....
kapil
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
प्रश्न चिन्हों में उलझकर रह गए उत्तर सभी,
है यथावत आज भी यह भ्रम मिटा लगता नहीं.
सुंदर! अति सुंदर!
बहुत अच्छी कविता है.
आपको बधाई.
बढ़िया लिखा है बंधु!
सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई ।
त्रिलोचन : किवदन्ती पुरूष
थक रहे है पाँव लेकिन मन थका लगता नही.
आ रही है सांझ लेकिन पथ चूका लगता नहीं.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..............
fantastic,khud se badhkar khud ka koi saathi nahi.karwan to dikhane ke liye hota hai.
fine owesome isse jayada kuch nahi kahena chati becoz aapne likha hi itna acha hai ki tarif me isse achha wor mujhe dhundna padega.
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