Saturday, July 3, 2010

ख़्वाब इन आँखों से अब कोई चुरा कर ले जाये / बशीर बद्र

ख़्वाब इस आँखों से अब कोई चुरा कर ले जाये
क़ब्र के सूखे हुये फूल उठा कर ले जाये

मुंतज़िर फूल में ख़ुश्बू की तरह हूँ कब से
कोई झोंकें की तरह आये उड़ा कर ले जाये

ये भी पानी है मगर आँखों का ऐसा पानी
जो हथेली पे रची मेहंदी उड़ा कर ले जाये

मैं मोहब्बत से महकता हुआ ख़त हूँ मुझ को
ज़िन्दगी अपनी किताबों में दबा कर ले जाये

ख़ाक इंसाफ़ है नाबीना बुतों के आगे
रात थाली में चिराग़ों को सजा कर ले जाये

Monday, May 10, 2010

मेरी शर्त


रिश्ता तोडना चाहो
तुम मुझ को छोड़ना चाहो
तो मेरी शर्त इतनी है ,
तुमें जो दे चूका हूँ मैं
मुझे लौटा दो वो सब कुछ …..!
मेरे लम्हे वो चाहत के
वो सब तोहफे मोहब्बत के
वो भीगी डायरी मेरी
वो सारी शायरी मेरी
मेरे वो कीमती लम्हे
जो तुझ को सोचते गुजरे
वो पल जो एक कयामत थी !
जो रास्ता देखते गुजरे
खुदा को भूल कर वो दिन
जो तुझ को सोचते गुजरे
तो फिर वो ज़िन्दगी मेरी
हाँ बोलो …..!!!
हर ख़ुशी मेरी
कहो लौटा सकोगी तुम ????

Monday, November 16, 2009

अधुरा प्यार-An Another Uncomplete Love Story

यू तो इन्सान नए ज़मीन ,नए आसमान की चाहत करता है ,ये आरजू भी उसके लिए मुमकिन होती है । लेकिन !जहाँ नयी कायनात उसके सामने आती है , उस जहाँ मे कदम रखते हुए काँप सा जाता हूँ । उसे एक अजीब सी उलझन महसूस होती है । मुहब्बत भी कुछ ऐसे ही जज्बे का नाम है ,जहाँ हर रंग बदलने वाला होता है ,जहाँ आदमी सोचता कुछ और है ,और होता कुछ और है ।किसी ने सच ही कहा है...कहते है प्यार किया नही जाता हो जाता है.प्यार एक खूबसूरत जज्बा है, जिसका सिर्फ एहसास किया जा सकता है, शब्दो मे बयान करना शायद सम्भव नही होगा.प्यार शब्द में सारी दुनिया समाई हुई हैं.एक मीठा एहसास जो जीवन में ताजगी भर देता हैं. प्यार आदमी को बहुत कुछ सिखाता हैं.किसी की आँख का आँसू आपकी आँखों में हो और किसी का दुख आपकी नींद उड़ा दे, किसी की हँसी आपके लिये सबसे कीमती हो और आप सारी दुनिया को भुला दे. यही तो प्यार के रंग हैं.प्यार एक ऎसी दुनिया है जो आपको सपनों की दुनिया का अनुभव कराती है? इस दुनिया में तड़प भी है, अपने साथी को पाने का जूनुन भी है, यहाँ पर दर्द भी है और खुशी भी है।

परसों शाम को काम का काफी बोझ उतार के(क्युकी सन्डे को ही मेरे पास काफी वक़्त होता है अपने पेंडिंग काम करने के लिए...) रात को ११ बजे ऑफिस से निकला ....मुआ ठण्ड की दस्तक ने लोगो को ९ बजे तक घर में घुसने के लिए मजबूर कर दिया है....ऊपर से ए नेचुरल कलामितीज़ शाम चार बजे के बाद ही धुंध दिखने लगती है (और इस मुए धुंध ने मेरे ऑफिस एम्प्लोयी की productivity भी कम कर रखी है.)....खैर!! जैसे ही गेट के बहार आया देखा की एक वयस्क लड़का और लड़की एक दुसरे की आगोश में आके रो रहे रहे थे...मै तो कुछ और समझ बैठा ....और अपनी नज़रें घुमा के अपने घर का राष्ता इख्तियार किया ....फिर थोड़ी सी सिसकने की आवाज़ मेरे कानो में आयी....और ना जाने क्यों मेरे पाँव अचानक ही उनके ओर डग भरने लगे...फिर मैंने एक द्वन्द भरी आवाज़ से बोला ""क्या रहे हैं आप लोग यहाँ ..रात के ११ बज चुके है आप लोग को इस वक़्त अपने घर में होना चाहिए "...लेकिन उधर से कोईप्रति -उत्तर नहीं मिला...अब मैं उनके और करीब पहुच चूका था..मुझे ये नहीं पता था की मै गलत कर रहा हूँ या सही ....लेकिन उनके काफी करीब था मै..दोनों बिलकुल सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए...लेकिन उनके आसूंओ का सैलाब मेरी बेचनी बढा रहा था...मैंने पूछा क्या बात है ....कोई जवाब नहीं .........फिर मैंने पुरे गर्म लहजे में बोला की अगर आप लोग मुझे नहीं बताएँगे तो मैं यहाँ से नहीं जाऊंगा......न जाने क्यों उनको मेरे ये छोटे से शब्द अपने लगे ......और फिर उन लोगो ने पूरी बात बताई...

मैं यहाँ उन दो प्रेमियों का नाम नहीं लिखना चाहूँगा ..क्युकी मैं उनके पवित्र प्रेम को रुसवा नहीं करना चाहूँगा...लड़के की शादी इसी १९ नवम्बर को है..और वो किसी बैंक में अच्छे पद पर है...और लड़की भी किसी आई.टी. संस्था में कार्यरत है...लेकिन दोनों भिन्न-२ जाति से ताल्लुक रखतें है....और यही मुख्या वज़ह है की वो अपने प्यार को शादी जैसे पवित्र रिश्ते का नाम नहीं दे पा रहे है.....उन दोनों ने अपनी पूरी बात बताई ....मेरी तो अक्ल ही गम....कुछ समझ में नहीं आ रहा था की इन दोनों की मासूम मुहब्बत के लिए मैं क्या करूँ....क्युकी पहाड़ो की बुलंदियां तो हम लांघ सकतें है लेकिन समाज की हदें पार करना हमारे बस में नहीं..."""" इन दोनों के मुहब्बत के बीच समाज था....अफ़सोस! जिसका एक हिस्सा मैं भी हूँ....

सच में मुहब्बत वो शय है जो रूह को ख़ुशी देता है..लेकिन उससे भी जयादा गम....मेरी प्यार-मुहब्बत के बारे में सोच थोड़ी भिन्न है..क्युकी आजकल के लड़के-लड़कियों को बहुत जल्दी प्यार हो जाता है। दरअसल उनका यह प्यार कभी-कभी प्यार न होकर एक शारीरिक और मानसिक आकर्षण रहता है जिसका पता उन्हें शादी के कुछ महीनों के बाद ही हो जाता है। आजकल के ज्यादातर लड़के अच्छे फिगर वाली लड़के- लड़कियों को देखकर अपने प्यार का इजहार कर देते हैं। प्यार के बड़े बड़े वादे तो हर कोई करता है... लेकिन जीवनभर साथ निभाने वाले लोग बहुत कम होते है...खैर ....

अब भी मुझे उस लड़की की बातें मुझे बेचैन करतीं है....जो उस वक़्त अपने बिछड़ने वाले जिंदगी के सबसे अहम् व्यक्ति से बोल रही थी....'' तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम जीवनभर मेरी देखभाल करोगे... तुम तब तक मेरा साथ नही छोड़ोगें जब तक में यह दुनिया नही छोड़ देती... और आज तुम मुझसे पहले ही मेरे प्यार की दुनिया छोडकर जाना चाह रहे हो..... आखिर तुम ऐसा क्यों कर रहे हो...मम्मी-पापा को समझाओ ..मे तुम्हारे बगैर कैसे जी सकुगीं''.....सर , आप ही समझाओ इन्हें....मैं क्या समझाता ......एक ना-समझ ही तो था मैं....उस लड़के की भी बहुत बड़ी मजबूरी थी....और कोई भी अच्छा बेटा अपने माँ-बाप के लिए अपनी खुशियाँ कुर्बान कर सकता है...
मैं सोचता रहा रात भर आख़िर ये कौन सा जज्ज्बा है ?? किसी को दिल में बसा लेना ,फिर उसे अपने प्रेम-रूपी खयालों की अमराइयों में ढूद्ना , और रात दिन उसी के सपने देखना ,मसलन ! एक दुसरे का इंतजार , मिलने की बेचैनी ,जुदाई का गम ,ये खुसनशीबी की निशानियाँ बहुत कम खुश्नसीबो को मिलती हैं ।हमारी चाहतें , हमारी मुहब्बतें , जो नामुमकिन दीवारो को तोड़कर एक हो जाती है , ऐसा मिलन एक मिशाल ही तो होता है .. जिसकी आगोश मे हमारी जिन्दगी क़ैद हो जाती है.अगर यह हमारे लिए सरफ़रोश है तो हमारा क़ैद होना उस संगीत की तरह होता है जिसे छेड़ कर दिल को अजीब सा सुकून मिलता है ...जिसे लफ़्ज़ों में नही बयाँ किया जा सकता , ....मगर जब वही क़ैद रिहाई बन जाती है तो जीना दुस्वार सा हो जाता है ,अपने महबूब अपनी मुहब्बत से बिछड़ जान एक दर्द भरा हादसा होता है ,इस हादसे की वज़ह चाहे जो भी हो मगर तड़पते सिर्फ दो दिल ही है ...बस यही है....क्युकी

"उनकी यादों के जब जख्म भरने लगतें हैं ।
फिर किसी बहाने उन्हें याद करने लगते हैं ॥ "

खैर, मैं भगवान् से यही दुआ करूंगा की उन मासूम की ख्वाहिस्सो को अगर हो सके तो पूरा करें...बहुत दर्द देखा मैंने उन दोनों की आँखों में....इसका अंदाजा सिर्फ मै ही लगा सकता हूँ.....उनके साथ बिताया वो आधे घंटे का लम्हा मुझे सदियों का एहसास करा गया .....लेकिन अफ़सोस.....तोनो तनहा -२ घर गए....और साथ में उनकी तनहाई मैं भी अपने साथ लाया.....उसकी बातें अब भी मेरे कानो में गूंजती है...................बस..............


मेरे पेश -ए -नज़र , ऐ मेरे हमसफ़र

है यही एक गम ,हम बिछड़ जायेंगे

मेरी बेचारगी देख कर हर घडी
कहती है चश्म-नम, हम बिछड़ जायेंगे

आंसुओं में मेरी , उम्र बह जायेगी
तुम चले जाओगे याद रह जायेगी,
तुम ने ये क्या किया मुझको बतला दिया
कुछ दिनों में सनम हम बिछड़ जायेंगे

कल ना जाने कहाँ और किस हाल में
तुम उलझ जाओगे वक़्त के जाल में,
कल भुला कर उठो — साथ मेरे चलो
आज तो, दो क़दम —– कल बिछड़ जायेंगे!!

Wednesday, October 14, 2009

मुर्तिवाद Vs सामाजिक क्रांति

अभी कुछ दिन पहले मायावतीजी के मूर्तियों(फिजूलखर्ची) पर १ छोटा सा डिस्कसन एक मित्र के साथ चल रहा था.. लेकिन बात काफी लम्बी खीच गयी. ...फिर हम लोग उस नवीन कांशीराम स्मारक के चार-दिवारी पर बैठ गए (जो वी.आई.पी रोड पर है). मायावती के अनुसार इन पार्को और स्मारकों पे दलित समुदाय आकर बैठेंगे और अपने विकास का परिक्षेप में मंथन करेंगे....लेकिन ये बात भी सत्य है की इन स्मारकों पर कोई भी दलित नहीं आयएगा विकास का मंथन करने...यहाँ कुल्फी, आइस-क्रीम के साथ प्रेमी-युगल अपने प्यार रूपी अमराईयों में गोते लगायेंगे .......
आज दलितों का सबसे ज्यादा अपमान होता है..इन मूर्तियों के नाम पर ....मेरा तो ये मानना है की इससे आंबेडकर जी की भी अमर आत्मा संतुस्ठ नहीं होगी, मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं अपने स्कूल में पढता था तो उन दिनों गाँधी जी, सुबास, आंबेडकर जी सबके बारे में बड़े ही गर्व से कुछ न कुछ टीचर सुनाते थे...लेकिन आज जाती-वाद, दलित-वाद के नाम पर आंबेडकर जी की भद्द पिट गयी ..आंबेडकर जी ने जो भी दलितों के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन किये वो सब उनकी मूर्तियों में दब गया....वजह सिर्फ ....राजगद्दी.....सत्ता........अभय दुबे जी के एक लेख में सही और सटीक लिखा है की ...राजसत्ता की कोठरी कालिख से भरी होती है। सामाजिक क्रांतियों की किरणें कितनी भी प्रखर क्यों न हों, राजनीति की कालिख से होकर गुजरने पर आम तौर पर उनकी चमक मंद होकर ही रहती है। राजसत्ता के साथ ज्यादा हेल-मेल का मतलब होता है सामाजिक क्रांतियों की धार का कुंद हो जाना। महाराष्ट्र के बाद अब उत्तर प्रदेश में आंबेडकरवादी सामाजिक क्रांति इसी समस्या से गुजर रही है। इस सामाजिक क्रांति के केंद्र में दलितों और उनके समुदायों द्वारा अपनी पहलकदमी पर लगाई जाने वाली आंबेडकर की मूर्तियां थीं। जैसे ही इन्हें लगाने का जिम्मा दलितों की राजसत्ता ने उठाया, ये मूर्तियां बाबा आंबेडकर के अनुयायियों के लिए सशक्तीकरण का स्त्रोत न रहकर, समग्र दलित परियोजना के लिए परेशानियों का सबब बन गईं। इन राज नेताओं के देश का बंटाधार कर दिया, ये सबसे बड़े झूठे है...विकास के नाम पर पता नहीं कितने झूठे वादे करते है..वैसे भी हमारे देश में सच बोलने की परंपरा नहीं रही है। सच बोलने वाले केवल एक महान व्यक्ति का जिक्र आता है -राजा हरिश्चंद। सत्य बोलने के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं सहा। लेकिन उनके बारे में ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि उन्होंने कभी अपनी निजी जिंदगी के बारे में सच बोला हो। उन्होंने कभी भी खुलासा नहीं किया कि उनके अपनी पत्नी के अलावा कितनी महिलाओं से संबंध थे, उन्होंने अपनी पुत्री से कम उम्र की कितनी लड़कियों से संबंध बनाए थे, उन्होंने पांच सितारा सरायों से कितनी सफेद या अन्य रंगों की चादरें चुराई थीं। लेकिन इसके बावजूद उन्हें सत्यवादी का खिताब दे दिया गया जो दरअसल इस बात का सबूत है कि उनके जमाने में सच बोलने वालों का कैसा भयानक अकाल था। ये झूठ बोलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है ....और सतत चलती रहेगी.....अब दलितों के उत्थान के लिए मूर्तियाँ लगी..फिर किसी सवर्ण के हाथ में सत्ता आएगी तो सवर्णों के उत्थान के लिए मुर्तिया लगवाएगा , फिर किसी ओ.बी.सी. वाले के हाथ सत्ता आएगी वो ओ.बी.सी उत्थान के लिए मुर्तिया लगवाएगा ......प्याज, टमाटर , दाल के भावः बढे इनको क्या लेना-देना....बस सब मुर्तिया देख कर पेट भर लेंगे....
खैर.....बशीर साहब के ये शेर जो कहीं न कही किसी सामाजिक क्रांति को वापस लाने की पुरजोर कोशिश है....
दुआ करो की ये पौधा सदा हरा ही लगे उदासियों से भी चेहरा खिला -खिला ही लगे ,
ये चाँद तारों का आँचल उसी का हिस्सा है कोई जो दूसरा उडे तो दूसरा ही लगे.
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे.
अजीब शख्स है नाराज़ होके हंसता है मैं चाहता हूँ खफा हो तो वो खफा ही लगे.
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा तो लगे .

Saturday, August 8, 2009

अच्छा लगता है वो मगर कितना



















भूल जाता हूँ मिलने वालों को
खुद से फिरता हूँ बेखबर कितना

उसने आबाद की है तन्हाई
वरना सुनसान था ये घर कितना

कौन अब आरजू करे उसकी
अब दुआ मैं भी है असर कितना

वो मुझे याद कर के सोता है
उस को लगता है खुद से दर कितना

आदतें सब बुरी हैं यारों उसकी
अच्छा लगता है वो मगर कितना

Thursday, August 6, 2009

टायसन परिणय बोनी


कल ही तो था टायसन का रिसेप्सन ...बोनी तो ऐसे चहक रही थी मानो उसे टायसन के रूप में ज़न्नत मिल गयी थी...सुर्ख होंठ,शरमाई सी आँखे, आवाज में सिलवट, निगाहों में चमक , लिए गेस्ट-हाऊस के चक्कर लगा रही थी...लेकिन मुए , गली के आवारा कुत्ते गेट के बहार से ऐसे घूर रहे थे जैसे बोनी की शादी ना-गवारा हो....बोनी डर के भाग जाती थी अपने टायसन के पास....और फिर फुल कन्संत्रेसन से "कभी अपने घुंघरू लगे कपडे को निहारती और कभी अपने सहजादे के गले में पड़ी चमकती माला को देखती..........टायसन , जो अभी ३ दिन पहले खाना-पीना बिलकुल छोड़ दिए थे ....शायद लगन लग गयी थी उनको.....

परसों दुर्भाग्य-वस हमारे मोहल्ले में आ गए थे घूमते-घूमते ....गली के गबरू जवान कुत्ते जो टायसन से खुन्नस खाए बैठे थे ...भाई , क्यों की कुत्तो के समाज में फुल- सर्टीफाईड विवाह स्ट्रिक्टली प्रोहिबिटेड है.....मोहल्ले की कोई छैल-छबीली किसी एक की जागीर नहीं हो सकती.......खैर !! "लल्ले(शर्माजी के कुत्ते का नाम...जो बिलकुल आवारा हो गया है..दिन भर आडवानी के किराना स्टोर की दूकान के सामने पड़ा रहता है .... चौराहा है न इसीलिए.....और इसी का जिगरी दोस्त "टाईगर (लेकिन अब मोहल्ले-वालो ने इनका नाम चेंज करके "छेदी " रख दिया है...क्युकी ये एक बार ये गलती कर के आंबेडकर-पार्क पहुँच गए थे ...जहाँ मायावती अपनी मूर्तियाँ स्थापित कर रहीं है...भाई , आप ही सोचो वहां कुत्तो का क्या काम....ये तो अच्छा हुआ की टाईगर पर गैंगस्टर नहीं लगा ..बाल बाल बच गए....लेकिन मूर्ति-उत्त्पीरण के तहत इनके कान में छेद कर दिया गया किसी पत्थर से.....तो आज भी इनके कान में छेद है....)........हाँ , तो हम बात कर रहे थे टायसन की ..... टायसन जैसे ही चौराहा पर दिखे , लल्ले ने घेर कर ...पूछना चाहा की " भाई , समाज भी नाम की कोई चीज़ होती है, ऐसे कैसे शादी कर लोगे तुम.....माना की हम मोहल्ले के आवारा कुत्ते हैं...लेकिन हैं तो "नवयुवक मंगल दल" के सदस्य...कोई भी सोसायटी के बाहर नहीं जा सकता....टायसन तो अकड़ गए, ऊपर से ह्यूमिडिटी ज्यादा थी......हो गया द्वंद ....एक बात तो तय है...गली के आवारा नवयुवको में बहुत एकता होती है....."छेदी भी भागता आया , लल्ले का साथ देने....फिर क्या था....टायसन की जम कर धुनाई हुयी....पास में खड़े मीडिया वाले(पिल्लै-छोटे कुत्ते ) फुल कवरेज़ कर रहे थे......जैसे - तैसे जान बचा कर टायसन को भागना पड़ा....लेकिन टांग में फ्रेक्चर हो ही गया .....

कल रिसेप्सन में काफी बुझे -२ से लग रहे थे टायसन ......अब ना जाने क्यों...शायद उन्हें अपनी हार का गम सता रहा था ...या शादी की जिम्मेदारियों से डर गए थे.....खैर , ये तो टायसन को ही पता होगा ....

खैर, कल तो तिवारी अंकल, और दीक्षित अंकल ने अच्छी पार्टी दी थी....कम-से-कम ३००-४०० लोगो को बुलाया था...और ये भी निर्देश था की "कृपया अपने श्वान को भी साथ लायें".....

Saturday, July 18, 2009

छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है

४ दिन पहले एक मीटिंग के सिल-सिले में इलाहाबाद जाना हुआ, शाम को ७ बजे लखनऊ से लॉन्ग ड्राइव करने के तत्पश्चात इलाहाबाद पंहुचा. साथ में मेरा एक जूनियर भी था ...सोचा की रात यही किसी होटल में गुजार लूं फिर अगले दिन सुबह ८ बजे इलाहाबाद से ५० की.मी दूर मेजा में मीटिंग थी ...पर मुआ डर गया इस डर से की कहीं ९ बजे ने निंद्रा टूटे और मीटिंग छूट जाए ...फिर ये प्लान किया की ..मेजा में एक मेरे मित्र है ...उन्ही के घर चलता हूँ ...रात वही गुजरेगी ...
नैनी के पूल क्रॉस करते ही ही मेरा ड्राईवर बोला ....सर, एक बात बोलूँ बुरा तो नहीं मानोगे ....मैंने अच्छे बच्चे की तरह सिर्फ सीर हिलाया ....और मौन स्वीकृति दे दी ...."सर, मेजा में ही हमारा घर है ...और मेरी इच्छा है की आप हमारे घर चलते "......बहुत रिक्वेस्ट करने लगा
"मुस्कान पाने वाला मालामाल हो जाता है पर देने वाला दरिद्र नहीं होता। " यह सोच कर मैंने उसके घर चलने की हामी भर दी...

रात के ११ बजे उसके गाँव पंहुचा...वैसे भी गाँव में लोग ८-९ बजे तक सो जाते हैं....लेकिन उस दिन तो उनका रतजगा था...क्युकी उनके बच्चे का बॉस जो उनके घर आ रहा था....छोटी सी टूटी सी झोपडी से माता जी निकली ....चेहरे पे अमोल प्यार और मुस्कान लिए ...जैसे की हृदय में छुपा लेना चाहती थी मुझको ....मैंने ऐसी आव-भगत अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में कभी नहीं देखि .....जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं।
मुआ शहरो में तो सिर्फ ह्युमिदिती होती है ...फोग होता ....फ्लू होता ....जरा इन गाँव में गरीबो के घर आके तो देखो कितना ...स्नेह, प्यार...और अपनापन होता है ....
छोटे से संकीर्ण झोपडी में ....सभी बैठे थे ....लेकिन कोई किसी से बात नहीं कर रहा ...सभी मेरी तरफ देख रहे थे .....और जैसे ये सोच रहे हो ....."बैठा हूँ इस गरज से , शायद हवा चले" ...और आंटी जी ....मेरे पास आकर मुझे पंखा झलने लगी ....ऐसा लग रहा था की ना जाने कितना प्यार दे देना चाह्ती हो मुझको ....और ये भी सच है ..."विश्व के निर्माण में जिसने सबसे अधिक संघर्ष किया है और सबसे अधिक कष्ट उठाए हैं वह माँ है।"....माँ की ममता का कोई मोल नहीं है ....फिर मैंने बात-चीत खुद शुरू की ....और साथ ही साथ मैं ये भी महसूस कर रहा था की ...शायद वो ये देखना चाह रहे हो की ..आखिर बॉस कैसे बोलते है ..क्या बोलते है...अपने अनुभव का साहित्य किसी दर्शन के साथ नहीं चलता, वह अपना दर्शन पैदा करता है। ...
खैर, रात के १ बजे तक मैंने उन लोगो से काफी बात-चीत की..बहुत सारा प्यार मिला...बहुत रेस्पेक्ट .....लेकिन पता नहीं क्यों मुझे गरीबी सबसे ज्यादा गाँव में ही दिखती है....
गाँव में कई लोग अभी भी ताँगे और बैलगाडी से पचासों किलोमीटर की दुरी तै करते है .कई लोगों ने उनकी तस्वीर कैनवास पर उतारकर जमाने भर को दिखाई और खूब ख्याति पाई. कुछ ने लिखे लंबे-लंबे गाँव की गरीबी पर उपन्यास लिख कर खूब वह-वही लूटी ....पर गरीब फिर भी गरीब ही रह गए..और लिखने वालों के नाम पर ढेर सारे इनाम आ गए...पर गरीब तो इस उम्मीद पर रह गए की..."ज़िंदगी तो उम्मीद पर टिकी होती हैं।"....शायद कभी सबेरा हो ..
निदा की एक ग़ज़ल कही न कही मेरे दिल के बहुत करीब है.........---------

हर घडी खुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हू मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछू की कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूंढ़ता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गई ख्वाब सुहाना देखे
जगता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महाफुउस है पत्थर मेरा

Saturday, May 23, 2009

सुनो!! तुम लौट आना

उदास शामों की सिसकियों में ..

कभी जो मेरी आवाज़ सुनना ,
तो बीते लम्हों को याद कर के ,
इन्ही फिजाओं मे लौट आना ..

तुम आया करते थे खवाब बन कर ,
कभी महकता गुलाब बन कर ,
मैं खुश्क होंठों से जब पुकारूँ ,
इन अदाओं मे लौट आना …

मेरी वफाओं को पास रखना ,
मेरी दुआओं को पास रखना ,
मै खली हाथों को जब उठाऊँ ,

मेरी दुआओं मे लौट आना

Sunday, October 19, 2008

मुम्बई किसके बाप की है?

शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) ने एक बार फिर उत्तर भारतीयों पर कहर ढाया है। रेलवे भर्ती बोर्ड की प्रवेश परीक्षा देने मुंबई पहुंचे बिहार और उत्तर प्रदेश के छात्रों को दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने कई इलाकों में घेर-घेर कर मारा है। कार्यकर्ताओं ने परीक्षा केंद्रों में घुसकर भी छात्रों की पिटाई और उन्हें वहां से भगा दिया।

आख़िर ये राज ठाकरे चाहता है क्या है.क्यों देश का विभाजन करने में लगा है.ऐसे लोगों को देशद्रोही करार दे कर आजीवन कारावास भेज देना चाहिए. यह बड़े शरम की बात है हर रोज इन की ज़ुबान बदती ही जा रही है और अपने ही देश में अपने ही लोगों के साथ मार पीट की जाती है. यह जो राज जी कर रहे हैं, क्या उनके लिए कोई क़ानून नहीं है. बेचारे ग़रीब छात्रों को मारना पीटना क्या यह सही है? क्या देश के नेता इस गुंडे से परेशान होकर यह सब देखते रहेंगे? केंद्र सरकार को तुरंत दखल देकर राज के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए. वरना यह देश बंट सकता है.

मुम्बई राज ठाकरे के बाप की नही हैं.1905 में बाल गंगाधर तिलक ने जब पूर्णस्वराज की मांग की थी, तो उस महान आत्मा ने सिर्फ महाराष्ट्र की आजादी का संकल्प नहीं लिया था बल्कि वह सपना पूरे भारत के लिए था।

उत्तर भारतीयो और अन्य गैर मराठीओ के दम पर मुंबई आज इस मुकाम पर आ गई तो राज ठाकरे और उसके गुंडे आज बिना मेहनत के मलाई खाने आ गये! मुंबई जितनी तुम्हारी है उतनी ही उत्तर भारतीयों या पूरे भारतीयो की भी है! ज़्यादा इतराने की ज़रूरत नहीं है, दिल से गंदी ईर्ष्या निकालो! अपनी जानकारी सही करो, कुएं के मेंढक जैसे मत करो! अपना जनरल नॉलेज बढ़ा लो ! केवल उत्तर प्रदेश की जानकारी ले लो! इस देश को आज़ादी दिलाने के लिए सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश के लोगो ने ही शहादत दी है!
आज़ादी का पहला बिगुल उत्तर प्रदेश से ही मंगल पांडे द्वारा फूंका गया, और क्या बात करोगे! आज भी कश्मीर मे सबसे ज़्यादा उत्तर भारतीय ही शहीद हो रहे हैं! तुम्हें अगर उत्तर प्रदेश से सही माने में नफ़रत है तो आज से वहां पैदा हुए भगवान राम, कृष्ण, शंकर, उनके पुत्र गणेश की पूजा बंद करो! उत्तर प्रदेश का पैदा किया गेहूं, मक्का, चावल, बासमती चावल, तेल, आलू, फल या अन्य कोई भी वहां की बनी वस्तु खाना या उपयोग करना बंद करो! एक बार जाके देखो, वहां की आबादी केवल 17 करोड़ है! उसमें से बहुत सारे लोग उत्तर प्रदेश के ही सरकारी विभागो में आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजिनियर, साइंटिस्ट, प्रोफेसर, सेना, पुलिस, रेलवे, बैंक, रेलवे , मीडीया, फिल्म,उद्योगो मे, बिजनेस मे या कृषि मे बड़े बड़े ऑफीसर , कर्मचारी या श्रमिक के रूप मे काम कर रहे है, आज से नहीं एक जमाने से! देश मे सबसे ज़्यादा आई ए एस , आई पी एस , अन्य बड़े ओफिसर आज भी वही से पैदा होते है, क्यो ? !वहा का कोई भी शहर या गांव घूम कर देखो! वहां पर भी लोग बहुत ही अच्छी शान शौहत से है ! नोएडा, ग़ाज़ियाबाद ,आगरा , मेरठ , कानपुर , मथुरा ,फ़िरोजाबाद, मुरादाबाद,अलीगढ़, बनारस ,मुगलसराय ,मोदीनगर या लखनऊ, देश के बड़े औद्योगिक शहर है और करोड़ो लोग वहां काम करते है केवल १० -१५ लाख ग़रीब लोग या वे जिनको वहा काम नही मिल पाता या वे जिनको बाहर जाने का बेहतर मौका मिल गया हो वे लोग मुंबई , बंगलोर ,गुजरात,दुबई,इराक़,कनाडा,मारीशस, लंदन ,अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया या कही जाते है !और अपनी जबरदस्त मेहनत और प्रतिभा से काफ़ी आगे बढ़ते है !इसमे राज ठाकरे का कोई एहसान नहीं है।

राज ठाकरे को तो बाला साहेब ने लात मारकर निकाल दिया था , कोई पूछ नही रहा था तो कमजोर और ग़रीब लोगो को मारकर राजनीति मे आने का सपना देख रहा है ! इसने आज तक मुंबई या मराठी लोगो के भले के लिए कोई एक काम किया है तो बताओ ! देश तुमसे कोई उम्मीद भी नही कर रहा है !उत्तर भारतीयो की कंपनियो मे काफ़ी मराठियों को भी काम मिला हुआ है !ये सब जाकर देखो, गैर मराठीओ से बेहतर काम कर के दिखाओ, अपने आप ही गैर मराठी लोग को कोई काम नही देगा! और तब तुम और राज ठाकरे दीवाली मनाना( लेकिन दीवाली भी तो उत्तर प्रदेश से ही जुड़ी है)

राज ठाकरे ! मुंबई को बर्बाद मत करो ! बाल ठाकरे के बनाए, सामाजिक आधार को बर्बाद मत करो ! बाल ठाकरे ने मराठियों और पूरे देश के लोगों को साथ लेकर देश द्रोहियो को सबक सिखाया ! मुंबई "भारत माता" की है ! पूरे देश का वित्तीय संचालन यही से होता है, ऐसे कैसे छोड़ देंगे !राज ठाकरे को सोचना चाहिए , मुंबई किसके बाप की है और किसके बाप की नहीं है इसका फ़ैसला करने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनसे पहले मुंबई किसकी या किसके बाप की थी और क्या मुंबई उन्हें उत्तराधिकार में मिली या उन्होंने खरीद ली या फिर छीनकर ले ली या चुराकर ले ली या मुंबई का अपहरण कर लिया.
..नही ..नही ..नही. मुम्बई सिर्फ़ तुम्हारे बाप की नही है..ये हमारे भी बाप की है..और सभी भारत-वासियों के बाप की है.

Tuesday, September 16, 2008

बचपन का जोक्स

वेब सर्फ़ करते हुए, बजी बॉय हाथ लगा , सोचा ये कॉमिक आप लोगो से भी शेयर करता चलूँ...ये कॉमिक्स पढ़ कर बचपन की याद आ गयी.


For More Cartoons Visit Buzziboy....

Sunday, July 27, 2008

तुम्हें भूलने की मैं कोशिश करूँगा

चमन की बहारों में था आशियाना
न जाने कहाँ खो गया वो ज़माना

तुम्हें भूलने की मैं कोशिश करूँगा
ये वादा करो के न तुम याद आना

मुझे मेरे मिटने का गम है तो ये है
तुम्हें बेवफा कह रहा है ज़माना

खुदारा मेरी कब्र पे तुम न आना
तुम्हें देख कर शक करेगा ज़माना

Saturday, July 19, 2008

झुलनियाँ का धक्का

अगर आप दिल्ली,मुम्बई,कलकत्ता जैसे शहरों मैं रहते है,और धक्का मारने में एक्सपर्ट नही है तो, आप हरदम धक्का खाते रहोंगे,यहाँ ऐसे-२ लगते है,धकापेल होती है कि देखने वाला भी धकिया जाय.दिल्ली की मेट्रो का धक्का हो या मुम्बई की लोकल ट्रेन का या कलकत्ता के ट्राम का धक्का,हम तो कहते है कि,धक्का खाते-खिलाते,धक्का मारते-मरवाते हम इतने कुशल हो गए है कि अगर “धक्का मार विश्वकप” प्रतियोगिता हो जाए तो यह सुनिश्चित है कि धक्का मार विश्व कप के विजेता हम ही होंगे!
इन दिनों दिल्ली में ब्लू लाइन बसों का धक्का बहुत प्रसिद्ध हो रहा है.दिल्ली सड़कों पर सुरक्षित यात्रा कर लेना पूर्व जन्म का पुण्य समझना चाहिए!

भारतीय धक्के विश्व-प्रसिद्द हैं, यहाँ धक्के की बिभिन्न प्रजातियाँ होती हैं, जैसे तन का धक्का, मन का धक्का, बीबी का धक्का, बॉस का धक्का, इश्क का धक्का, अदाओं का धक्का, जुल्फों का धक्का, सिफारिश का धक्का,प्रमोशन का धक्का,राजनीती का धक्का ,आदि....
यहाँ धन का धक्का सबसे प्रभावशाली माना जाता है.अगर धन का धक्का न लगे तो फ़िर काहे की नौकरी , कौन सी नौकरी. क्यों की धन के धक्को में झूलती नौकरी अच्छी लगती है.जहाँ कोई धक्का काम नही आता वहां धन का धक्का काम करता है.बीबी की नाराज़गी हो या प्रेयशी के रूठ जाने का धक्का , अगर आप के पास धन का धक्का है तो बिल्कुल परेशां होने की जरुरत नही है.

सब धक्कों से सर्वश्रेष्ठ धक्का कछार कन्याओं का धक्का होता है.क्यों की जब ये कमसिन लड़कियां धक्का लगाती है तो रोयें -रोयें में उस धक्के का एहसास होता है.और जब ये धीरे से धक्का मार के आगे निकल जाती हैं तो डूब मरने की नौबत आ जाती है.इन धक्को का मजा लेना हो तो इनकी अदाओं के धक्के,जुल्फों के धक्के खाईये फिर देखिये इन धक्को की इतनी लत पड़ जायेगी की धक्के खाते फिरोगे.

बहुत पहले एक गाना था "लगा झुलनिया का धक्का ,बलम कलकत्ता पहुँच गए...." जरा देखिये , इस कन्या के झुलनिया का धक्का ऐसा था की इनके प्रियतम सीधे कलकत्ता पहुँच गए. गज़ब की रही होगी ये कन्या और कितना सधा, और सटीक होगा इसकी झुलनिया का धक्का .झुलनिया से धक्का लगाने वाली यह कन्या कितनी एक्सपर्ट रही होगी की उसने इतने अनुमान से सही कोणीय विस्थापन और वेलोसिटी पॉवर से धक्का लगाया होगा की उसके बालम सीधे कलकत्ता पहुँच गए और कहीं रास्ते में अटके भी नही. बैज्ञानिकों द्वारा छोड गए रोकेट भी कभी-२ बीच रस्ते से टपक जाते हैं.जबकि कई सौ सालों से इस पर रिसर्च चल रही है. अभियंताओं द्वारा बनाये गए बाध, पुल, सड़के, फ्लाई-ओवर भी गिर जाते हैं , लेकिन इस बांकी छोरी के झुलनिया का धक्का कितना सही रहा होगा.

अगर आज झुलनिया पहनने वाली अभिनेत्रियों का सहारा लिया जाए तो आवागमन कितना आसान हो जायेगा, पेट्रोल, पैसे और समय की बचत होगी.इधर से झुलनिया का धक्का लगवाया उधर गए , और उधर से धक्का लगवाया इधर आ गए. आफिस जाना हो तो , घर से झुलनिया का धक्का लगवाओ ,और ऑफिस से झुलनिया का धक्का लगवाया तो घर पहुच गए.कितना उपयोगी होगा ये झुलनिया का धक्का ऑफिस की लेट-लतीफी भी कम हो जायेगी.देर रात रुक-कर ओवर-टाईम भी कर सकते हैं,क्यों की कनवेंस की समस्या तो झुलनिया के धक्के ने खतम ही कर दी.
लेकिन इस के लिए कम्पनियों को झुलनिया वाली बालाओं को हायर करना पड़ सकता है.तब पेपरों आदि में विज्ञापन निकलेगा की --
आवश्कता है तीन झुलनिया वाली लड़कियों की
योग्यता- धक्का मारने में निपुण , (ख़ुद की झुलनिया होना आवश्यक है.)
नोट- योग्य झुलनिया वाली बाला को इंसेंटिव तथा फ्री मील्स.

Sunday, June 22, 2008

हमरी भैसिया को घंटी किसने मारा

हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखा है की यदि कोई मनुष्य काम,क्रोध, मोह, लोभ त्याग तो वो परमानन्द को प्राप्त करता है. लेकिन मुझ खाकसार के तुक्ष विचार से यदि मनुष्य मोबाईल फ़ोन त्याग दे तो वो परमान्नद को प्राप्त करता है. अभी कुछ दिन पहले मैं अपने गाँव जौनपुर गया था. देखा की ५-६ साल बच्चो के हाथों में नोकिया एन-सिरीज़ , सोनी वी-फी न जाने कौन -२ से मोबाइल फ़ोन हाथ में. लेकिन ये देख के अच्छा भी लगा की चलो गाँव के लोग भी गजेट्स एंड टेक्नोलॉजी में आगे बढ़ रहे है.

अभी कुछ सालो की तो बात है, जब मेरे पड़ोस में किसी की कोई रजिस्ट्री, चट्ठी आती थी तो कुछ लोग मेरे पास ले कर आते थे, की राजू बेटा जरा ये पढ़ के सुना दो. .. झूठ नही बोलूँगा, इसी बहाने मैं भाभियों का लव-लेटर (भइया लोग भेजते थे) भी पढ़ लेता था.मुझे भी अच्छा लगता था की सभी तरह के दुखियारे मेरे पास आते थे चिट्ठी लिखाने.कोई बुड्ढा दादा जिसका बेटा महीनो से रुपया नही भेज रहा है, कोई औरत जिसका मरदवा दूर परदेश में शायद दूसरी मेहरिया लिए बैठा है, कोई छैल-छबीला बांका जवान जो दूर बैठा-२ किसी लड़की को चारा फेक रहा हो, कोई दिलफेंक औरत जो "सिलसिला" देखने के बाद अमिताभ बच्चन जैसे किसी शादी-शुदा मरद से जा फ़सी, कोई बेचारी कुवारी जो कुछ नही समझ पाती अपने दिल को इस नयी-२ सुगबुगाहट को, बस इतना जानती है की बड़ी दीदी के छोटे देवर "हीरा लाल" को देखते ही जाने कैसी कलियाँ सी चिटकने लगती है भीतर ही भीतर , और शरीर पानी-२ सा हो जाता हैं. ...... खैर ! अब जमाना पूरा का पूरा बदल गया .अब न कौनो चिट्ठी न पत्री, अब तो मोबाइल ही सब कुछ कर देता है.
खैर, कुछ महीने पहले जब हम गाँव गए तो , जगरनाथ दादा जिनकी उम्र करीब ७५ साल के आस-पास होगी , बहुत ही नेक और सीधे-सादे व्यक्ति हैं. मेरे पास आए एक नोकिया एन-सिरीज़ लेकर और बड़े गर्व से बोले "राजू बेटा तुम तो इंजिनीयर हो ,जरा देखो मेरा मोबैलवा चल नही रहा है, कुछ करो इसका. मेरी तो अक्ल ही गुम! क्युकी मैं तो वही नोकिया २१०० और एल.जी उसे किया था. मुझे तो एन-सिरीज़ का कोई आईडिया नही था. खैर मैंने दादा जी को बोला क्या हुआ है इसमे.बोले की जब बेटवा को फ़ोन लगाते हैं तो फ़ोन नही लगता, इसमे एक जनाना(औरत) बोलती है की तोहरा फोनवा का बैलेंस ख़राब चल रहा है,कृपया बैलेंस ठीक करवाएं.
फिर मैंने पूछा दादा जी आख़िर इसका बैलेंस ख़राब कैसे हुआ,
दादा बोले- का बताये बेटा, बस संजोग ख़राब था. हम मोबैलवा ले के अपनी भैसिया को दूध रहे थे , तभी हमरा फोनवा ससुरा बज गया, और भैसिया भड़क गयी. और अपसेट हो कर लात मार देस. फिर बेटवा हमरे सामने ही हमरे मोबैलवा की बैलेंस ख़राब हो गया.

मैंने भी बहुत अफ़सोस किया(बैलेंस ख़राब होने का). फिर मैंने जगरनाथ दादा को फ्री का सुझाव दिया की आप कस्टमर-केयर फ़ोन करके पूछ लो. फिर मैंने कस्टमर केयर फ़ोन लगा के दादा को पकड़ा दिया.
दादा- हैलो.. हैलो , भइया जय राम जी की , हम जगरनाथ निगोह गाँव से बोल रहे है.
कस्टमर-केयर: हम आपकी क्या मदद कर सकते हैं.
दादा- साहब, हमरे मोबैलवा को भून्गरी भैसिया ने लात मार दिस , तभी से हमारा मोबैलवा का बैलेंस ख़राब हो गया.
कस्टमर-केयर: अपना नम्बर बताएं.
दादा - नही हम को कोई नम्बर नही लगता , हम बिना चश्मा के हैं... बस थोडी अंदरूनी बताश है,जब जब पुरुवा चलती है तो थोड़ा थोड़ा पुरे शरीर में ऐठन आ जाती है.
कस्टमर-केयर: आपने अपना मोबाइल कब रिचार्ज कराया था ?
दादा - रोज़ ही चार्ज होता है, रात खाने खाने के बाद हमरी बहु बिरजू से रात २ बजे तक चार्ज करती है , क्युकी रात ११ बजे के बात फोनवा का बिल कुछ सस्ता हो जाता है.
कस्टमर केयर -तो ठीक है , आज फिर रिचार्ज कर लेना....आप का बैलेंस ठीक हो जायेगा.
दादा - अच्छा बेटा ठीक है, जुग-जुग जियो.
कस्टमर केयर - और कुछ जानना चाहेंगे मिस्टर जगरनाथ.
दादा - हाँ बेटा! आज कल मार्केट में "यूरिया " का क्या रेट चल रहा है? और हमरी नहर में पानी कब आएगा?


Category- Hindi Jokes

Sunday, May 25, 2008

गजोधर और बिजली की प्रेम कहानी

प्यारे गजोधर !
तुम्हे यहाँ से गए तीन दिन यानी ७२ घंटे यानी .....काश मेरा मैथमेटिक्स स्ट्रोंग होता तो में इस बेरहम जमाने को बता देती की अपने गजोधर से बिछड़े हुए कितने पल हो गए.तुम्हे याद है न अभी कुछ दिन पहले से तुम मुझे प्यार से गोभी का फूल कहते थे, आज तुम्हारा वही गोभी का फूल सूख कर मूली, गाजर की तरह हो गया है.

प्यारे गजोधर,तुम्हारे दिल्ली से आनेवाले हर पत्र (तुम दिल्ली ही गए हो न! कहीं मुझे धोखा दे कर मुम्बई हीरो बनने तो नही चले गए ?)........मैं भी जनम-जली बड़ी शक्की हूँ. हाँ , तो तुम्हारे हर पत्र की राह में ये चांदी के तराजू से मुहब्बत को तौलने वाली दुनिया .....नदी , पहाड़ सुरंग बिछा देगी, मगर तुम पत्र जरुर लिखना.इधर खाकी कपडे वाले को पोस्ट-मैन समझ पूछती हूँ " हमरे गजोधर का कौनो चिट्ठी - पत्री आयी है का ?) एक बार तो मैं एक पुलिस वाले को पोस्ट-मैन समझ कर उससे पूछने लगी, वो कमीना बोला खोपचे में चलो, वही दूंगा तुम्हे तुम्हरे गजोधर का पत्र.....तुम ऐसा वैसा कुछ न समझना ,तुम्हारी बिजली आज भी वैसे ही पाक-पवित्र है.
पर गजोधर, तुम्हारे जाते ही मुहल्ले के हवास के पुजारी मुझ बेबस लाचार, मजबूर औरत की मुहब्बत का इम्तिहान लेने लगे है.

कल मेरे पिताजी धमकी दे रहे थे की अगर तुम्हरा गजोधर दस दिन के भीतर नही आया तो मेरी शादी बिरजू से कर दी जायेगी.मैं सब जानती हूँ की ये सब समाज के ठेकेदारों की चाल है.पर मैं तुम्हे यकीन दिलाती हूँ की जिस तरह तुम्हारे पिताजी का बनाया मकान दो महीने में गिर जाता है, वैसे ही मैं इन समाज के ठेकेदारों की चाल दो दिन में गिरा कर मुहब्बत की दुनिया का नाम रोशन करुँगी, चाहे समाज के ठेकेदार चांदी के चंद सिक्के फेक-कर शहर की सारी माचिस खरीद ले.मगर मुहब्बत की शमा युही जलती रहेगी.

मेरा खाना-पीना तो छुट ही गया है, केवल पकौड़ी ही खाती हूँ,सांस लेना भी बोझ लगता है, पर नही लुंगी तो मार जाऊंगी.मुझे अभी मुहब्बत के कई इम्तिहान देने हैं, इतनी जल्दी मर कर मुहब्बत को जीते जी बदनाम नही होने दूंगी..... काश मेरे पंख होते तो मैं उड़ जाती,यूं तो यहा से दिल्ली जाने के लिए रेल, और प्लेन दोनों जाते है,पर आज तक जितनी भी प्रेमिकाए हुयी उन्होने ने पंख ही मांगे, मैं रेल से आ कर उन मुहब्बत की देवियों का सिर नही झुकाना चाहती.इसलिए जब तक मेरी साईज के पंख नही मिलते मैं नही आ सकती .

ओ, मेरे वक्त के शहजादे! तू वक्त के पहले ही आ. जमीन टूट पड़े, या जमीन के साथ तुम भी टूटो, मगर सीधे मत आना, खाली हाथ आ कर मेरे माथे पर कलंक का टीका मत लगाना, तुम जान हथेली पर ले कर आना, खाली हाथ और सर पे टोपी की जगह कफ़न बाढ़ कर आना... आओ और मुझ करम जली को बर्बाद होने से बचा लो, भले ही खुद बर्बाद हो जाओ.

लक्स जैसी खुशबू हमाम में नही.
आप जैसा प्यारा हिंदुस्तान में नही.

अगर सही सलामत आ गए तो मैं ऐसे ही ढेर सारी शेर आपको सुनूंगी, जो मैंने इस जुदाई मे कंपोज किये हैं.

- तुम्हारे प्यार की दीवानी
बिजली रानी

Saturday, March 15, 2008

मुझे खोने से डरता था

मेरी आखों पे मरता था
मेरी बातों पे हँसता था
नाजाने शख्स था वो कैसा
मुझे खोने से डरता था

मुझे जब भी वो मिलता था
यही हर बार कहता था

सुनो !!!!!

अगर मैं भूल जाऊं तो,
अगर मैं रूठ जाऊं तो

कभी वापिस न आऊं तो
भुला पाओगे ये सब कुछ
यूँही हँसती रहोगी क्या
यूँही सजती रहोगी क्या

यही बातें हैं बस उसकी
यही यादें हैं बस उसकी
मुझे इतना पता है बस ……!
मुझे वो प्यार करता था ,

मुझे खोने से डरता था!!!!!!!!!!!!!!

Saturday, March 1, 2008

प्रतीक्षारत हूँ !!!!!!


सरिताओं का गहरा सागर उमड़ा था .

जब देखा था तुमने .

चाहत भरी निगाहों से मुझे!

चाहता था डूब जाऊं उनमे ,

पर, नही पा सका तुम्हारा वह अस्तित्व

फिर भी "प्रतीक्षारत " हूँ ,

इसीलिए आज तक !

की कभी तो मिलोगी तुम

ख्वाब में या ख़यालों में ,

एक अ-स्पस्ट सी परछाई बनकर!!!

Friday, February 1, 2008

छेड़छाड़- एक प्रसंग.

आज मैं छेड़ छाड़ का ज़िक्र करूँगा. बहुत पहले व्यंग के जादूगर यशवंत कोठारी जी ने छेड़ छाड़ पर एक व्यंग लिखा था जो काफी मशहूर हुआ.छेड़-छाड़ पर लिखने की प्रेरणा उन्ही के व्यंग से मिली.
छेड़-छाड़ उस विधा का नाम है जिसे बेटा बिना बाप के सिखाये सीख जाता है.मूछों की रेखा आयी नही की बच्चा छेड़-छाड़ शास्त्र में उलझ जाता है.छेड़ने की पर्यायवाची: क्या माल है ,क्या कमर है,क्या चलती है, आती क्या खंडाला आदि .फसलों की किस्मों की तरह छेड़ छाड़ की की भी काफी किस्म होतीं हैं.जैसे बजारू छेड़ छाड़ ,घरेलू छेड़ छाड़ ,दफ्तरी छेड़ छाड़,जीजा साली छेड़ छाड़ ,फिल्मी छेड़ छाड़ ,साहित्यीक छेड़ छाड़ ,ब्लोगिंग छेड़छाड़ वगैरह, वगैरह.

वैसे मुझ खाकशार को छेड़छाड़ पर कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है.छेड़छाड़ की परम्परा आदिकाल से ही चली आ रही है.आदम ने हब्बा को छेडा परिणाम आज की सृष्टि .सपुर्न्खा ने राम लक्ष्मण को छेडा परिणाम सपुर्न्खा की नाक कटी.रावण ने सीता को छेडा परिणाम ,रावण का नाश हुआ.और आगे बढें तो द्वापर के सबसे बडे छेडैया कृष्ण जी हुए.पनघट पे गोपियों को छेडा और अनंत काल तक छेड़ते रहे परिणाम ये हुआ की गोपियों ने उनकी गैईया को चराने से मना कर दिया.

अब आया कलजुग जिसमे छेड़छाड़ ने काफी विकास किया.महाराणा प्रताप ने अकबर को छेडा,शिवाजी ने औरंगजेब को छेडा.गांधी जी ने अंग्रेजों को छेडा, विकसित देश विकाशील देशों से छेड़ छाड़ कर रहे हैं, पडोसी पडोसी से छेड़छाड़ कर रहा है.राजनितिक दल आपस में छेड़ छाड़ कर रहे हैं.सरकार जनता से छेड़छाड़ करती है,और हाँ, जनता भी पांच वर्षों में एक बार सरकार से ऐसा छेड़छाड़ करती है की सरकार चारो खाने चित्त.हिन्दी चिटठा पुरस्कार कमिटी ने २००७ की पुरस्कृत ब्लागर ममता जी को छेडा परिणाम ये हुआ की ममता जी ने पुरस्कार ही लेने से मना कर दिया .

छेड़छाड़ का प्रसिद्ध मौसम "फागुन " माना जाता है.वैसे मकर संक्रान्ति से सीजन शुरू हो जाता है फिर वसंत पंचमी और होली पर तो छेड़छाड़ एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की तरह हो जाता है.फिर आता है मई-जून जिसमे छेड़छाड़ अपने चरम पे होता है.क्युकी ये शादी व्याह का मौसम हो जाता हैं,इसमे खूब छेड़ छाड़ चलती है.

जहाँ तक बात है दफ्तरी छेड़छाड़ की,अगर अप्रैसल के टाईम बॉस छेड़छाड़ कर दे तो एम्प्लोयी बेचारा फिर एक साल तक रोता है.कभी कभी छेड़छाड़ रूपी अस्त्र तबादले के लिए भी किया जाता है. बॉस जब महिला कर्मचारी को छेड़ता है तो क्या बात.बॉस उन्हें अपने केबिन में बुलाता है,काफी पिलाता है,फिर शाम को उन्हें पिक्चर और डिनर के लिए आमंत्रित करता है और कुछ दिनो बाद महिला का प्रमोशन हो जाता हैं.

खैर छेड़छाड़ पर लिखते रहे तो ये अद्ध्याय कभी खत्म नही होगा.हम प्राईवेट नौकरी वाले तो साल भर छेड़छाड़ करते रहते हैं, न करें तो खाएं क्या? कभी कोडिंग से छेड़छाड़ ,कभी अल्गोरिथम से छेड़छाड़ ,कभी एस.डी.एल.सी से छेड़छाड़, कभी प्रोजेक्ट मैनेजर से छेड़छाड़ ,कभी एच.आर . से छेड़छाड़.........कभी खुद से छेड़छाड़!!!

Sunday, January 27, 2008

विल्स नेविकट और खड-खाना

मेरे मित्र अरुण तिवारी (हम लोग आठ साल से एक साथ रहते हैं) को कल एक शादी के निमंत्रण पर जाना हुआ.रात के ११ बजे वहाँ से फारिग हो कर कमरें पर आयें.देख रहा हूँ उनके हाथ में २ विल्स नेविकट(सिगरेट ) की डिब्बियां .मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा.मैंने पूछा तिवारी यार कोई लौटरी हाथ लगी या सिगरेट की डिब्बियों की बाहर बारिश हो रही थी.क्युकी मैंने हरदम तिवारी जी को १ या २ सिगरेट खरीदते हुए देखा (आठ साल से ).
उन्होने मुश्काराकर कहा “अबे यार !शादी में गया था न !! रोहिणी ,वही से जुगाड़ हुआ .लेकिन यार आते आते मैंने एक और डिब्बी पर हाथ फेरना चाहा पर फिसल गयी.फिर तिवारी जी पुलाव,शाही पनीर,टिक्की मसाला आदि के किस्से सुनाया .बहुत भीड़ हो गयी थी लोग छिना झपटी कर राहे थे.फिर रात के २ बजे तक हम लोग काफी बातचीत किये आज के बफे (खड खाने ) और व्यवस्था पर.

आज देश का बढियां खाना कुत्तों के पेट में जा रहा है.क्यों की बड़ी पार्टियों ,डिनरों, शादी व्याह में खडे खडे खाने का रिवाज़ है.पर आज तक यह समझ में नही आया की इस देश में कुर्सियों की ऐसी कौन सी बड़ी कमी आ गयी जो लोग बाग़ बैठकर खाना नहीं खा सकते.देख कर ऐसा लगता है की जैसे लोग प्लेट लेकर भोजन समेत घर भाग जायेंगे. ऐसे में अगर कान खुजलाना हो या सरकता हुआ चश्मा ठीक करना हो तो समस्या !!! एक हाथ में नेप्किन और प्लेट दूसरे में चमचा .तीसरा हाथ भगवान् ने दीया नहीं.मजबूरन पास गुजरते लोगो से कहना पड़ता है.भाई साहब जरा मेरा कान खुजला दीजिये या चश्मा सरका दीजिये . लोग बाग़ खाली प्लेट ले कर ऐसे इधर उधर टहलते हैं जैसे सूट पहन कर भीख मांगने जा रहे हो.

एक अजीब दृश्य होता है "बफे उर्फ़ खड खाने " का. हर आदमी ओलम्पिक खिलाडी की तरह इस लालच में उछलता है की सीधे पकवान के डोंगे पर जा कर गिरे और अपनी प्लेट में पहाड़ समेत ले.ऐसे मौके पर महिलाओं का कौशल देखने योग्य होता है.पहले अपने निजी उपलब्धियों (बच्चो ) को आगे ठेलती हैं ,फिर उनकी सुरक्षा के बहाने खुद डोंगे पर हावी हो जाती हैं .साथ साथ यह भी दोहराती जाती हैं की उनका कुछ खाने का मूड नही है...खाने की आपाधापी को देख कर ऐसा लगता है की लोग जिंदगी में पहली बार खाना खा रहे हों.खड खाने की लड़ाई में जो लोग विजयी होते हैं उनके प्लेट में लड़ा माल देख कर ऐसा लगता है की ये लोग अब चार पाच दिन तक खाना नही खाएँगे.


फिर कुछ देर बाद लोग खाने पर अपनी राय प्रस्तुत करते हैं.अरे मिश्र जी " शाही पनीर तो लाजवाब थी पर थोडी तीखी हो गयी थी.पूरियां थोडी जल गयी थी.मिश्रा जी आपने गोल गप्पे खाया था ? नही! मिश्र जी आश्चर्य से बोलते हैं .अमा यार ,शाही पनीर के राईट हैण्ड को दस कदम आगे बढ़ने पर मशरूम का डोंगा था ,उससे लेफ्ट को पुलाव के रास्ते हो कर स्ट्रेट जाने पर गोल गप्पे थे. ..............

Monday, January 21, 2008

उसे जब याद आएगा की सावन लौट आया है


उसे जब याद आएगा की सावन लौट आया है .
बुला लेगा वो मुझको या खुद ही लौट आएगा .

उसे जब याद आयेगा मैं कैसे मुस्कुराता था
तो आंखें मुस्करायेंगी , या दामन भीग जायेगा ,

उसे जब याद आयेगा मैं कैसे नाम लेता था
तो मेरा नाम लिखेगा , या अपना भी मिटायेगा,

उसे जब याद आएगा मेरा खामोश सा रहना
तो सब को बोल देगा वो या खुद से भी छुपाएगा ,

उसे जब याद आएगा मेरा नंगे सर फिरना
तो बिजली बन के कड़के गा , या बादल बन के छायेगा

उसे जब याद आएगा मेरा चलना , मेरा फिरना
तो राह में खार बोयेगा , या फिर पलकें बिछायेगा .
उसे जब याद आएगा .......................

Wednesday, January 16, 2008

तुने होंठों को लरज़ने से तो रोका होता?

तुझे इजहार -ऐ -मुहब्बत से अगर नफरत है
तुने होंठों को लरज़ने से तो रोका होता

बे-नियाजी से, मगर कंकपाती आवाज़ के साथ
तुने घबरा के मेरा नाम न पूछा होता

तेरे बस में थी अगर मशाल -ऐ -जज्बात की लौ
तेरे रुखसार में गुलज़ार न भड़का होता

यूं तो मुझ से हुई सिर्फ़ आब -ओ -हवा की बातें
अपने टूटे हुए फिकरों को तो परखा होता

यूं ही बे-वजह ठि-ठाकने की ज़रूरत क्या थी
दम -ऐ -रुखसत में अगर याद ना आया होता

तेरा अंदाज़ बना ख़ुद तेरा दिले -दुश्मन
दिल ना संभला , तो कदमों को संभाला होता

अपने बदले मेरी तस्वीर नज़र आ जाती
तुने उस वक़्त अगर आईना देखा होता

हौसला तुझ को ना था मुझ से जुदा होने का
वरना काजल तेरी आंखों में ना फैला होता .