Sunday, January 27, 2008

विल्स नेविकट और खड-खाना

मेरे मित्र अरुण तिवारी (हम लोग आठ साल से एक साथ रहते हैं) को कल एक शादी के निमंत्रण पर जाना हुआ.रात के ११ बजे वहाँ से फारिग हो कर कमरें पर आयें.देख रहा हूँ उनके हाथ में २ विल्स नेविकट(सिगरेट ) की डिब्बियां .मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा.मैंने पूछा तिवारी यार कोई लौटरी हाथ लगी या सिगरेट की डिब्बियों की बाहर बारिश हो रही थी.क्युकी मैंने हरदम तिवारी जी को १ या २ सिगरेट खरीदते हुए देखा (आठ साल से ).
उन्होने मुश्काराकर कहा “अबे यार !शादी में गया था न !! रोहिणी ,वही से जुगाड़ हुआ .लेकिन यार आते आते मैंने एक और डिब्बी पर हाथ फेरना चाहा पर फिसल गयी.फिर तिवारी जी पुलाव,शाही पनीर,टिक्की मसाला आदि के किस्से सुनाया .बहुत भीड़ हो गयी थी लोग छिना झपटी कर राहे थे.फिर रात के २ बजे तक हम लोग काफी बातचीत किये आज के बफे (खड खाने ) और व्यवस्था पर.

आज देश का बढियां खाना कुत्तों के पेट में जा रहा है.क्यों की बड़ी पार्टियों ,डिनरों, शादी व्याह में खडे खडे खाने का रिवाज़ है.पर आज तक यह समझ में नही आया की इस देश में कुर्सियों की ऐसी कौन सी बड़ी कमी आ गयी जो लोग बाग़ बैठकर खाना नहीं खा सकते.देख कर ऐसा लगता है की जैसे लोग प्लेट लेकर भोजन समेत घर भाग जायेंगे. ऐसे में अगर कान खुजलाना हो या सरकता हुआ चश्मा ठीक करना हो तो समस्या !!! एक हाथ में नेप्किन और प्लेट दूसरे में चमचा .तीसरा हाथ भगवान् ने दीया नहीं.मजबूरन पास गुजरते लोगो से कहना पड़ता है.भाई साहब जरा मेरा कान खुजला दीजिये या चश्मा सरका दीजिये . लोग बाग़ खाली प्लेट ले कर ऐसे इधर उधर टहलते हैं जैसे सूट पहन कर भीख मांगने जा रहे हो.

एक अजीब दृश्य होता है "बफे उर्फ़ खड खाने " का. हर आदमी ओलम्पिक खिलाडी की तरह इस लालच में उछलता है की सीधे पकवान के डोंगे पर जा कर गिरे और अपनी प्लेट में पहाड़ समेत ले.ऐसे मौके पर महिलाओं का कौशल देखने योग्य होता है.पहले अपने निजी उपलब्धियों (बच्चो ) को आगे ठेलती हैं ,फिर उनकी सुरक्षा के बहाने खुद डोंगे पर हावी हो जाती हैं .साथ साथ यह भी दोहराती जाती हैं की उनका कुछ खाने का मूड नही है...खाने की आपाधापी को देख कर ऐसा लगता है की लोग जिंदगी में पहली बार खाना खा रहे हों.खड खाने की लड़ाई में जो लोग विजयी होते हैं उनके प्लेट में लड़ा माल देख कर ऐसा लगता है की ये लोग अब चार पाच दिन तक खाना नही खाएँगे.


फिर कुछ देर बाद लोग खाने पर अपनी राय प्रस्तुत करते हैं.अरे मिश्र जी " शाही पनीर तो लाजवाब थी पर थोडी तीखी हो गयी थी.पूरियां थोडी जल गयी थी.मिश्रा जी आपने गोल गप्पे खाया था ? नही! मिश्र जी आश्चर्य से बोलते हैं .अमा यार ,शाही पनीर के राईट हैण्ड को दस कदम आगे बढ़ने पर मशरूम का डोंगा था ,उससे लेफ्ट को पुलाव के रास्ते हो कर स्ट्रेट जाने पर गोल गप्पे थे. ..............

5 comments:

Yunus Khan said...

हां राज मैं वही यूनुस खान हूं भई । शुक्रिया मेरी आवाज़ के साथ इतने लम्‍हें गुजारने का ।

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया लपेटा इस खड़-खाना अर्थात बुफ़े उर्फ़ बुफ़ेलो सिस्टम को!!

Gyan Dutt Pandey said...

नया शब्द मिला - खड़ खाना। मौके पर प्रयोग होगा। और मौके बहुत आते हैं। उनमें कई बार धकियाये जाने पर जो मिले सन्तोषी भाव से खा कर हट लेना होता है।

Anonymous said...

आपने ब्लाग पर जो टेंपलेट लगा रखा है यह हिन्दी को ठीक सपोर्ट नहीं करता. मेरे यहां ही हिन्दी के कुछ शब्द नहीं दिखा रहा है.

Batangad said...

राज
कुर्सियां देश में कम नहीं हुई हैं। देश में पहले जैसे कुर्सी पर बैठाकर प्रेम से खिलाने वाले नहीं रहे। अब अपनी इज्जत आदमी खुद ही बचाता-- छिपते बचाते खाता छोड़ता रहता है। इसीलिए खड़ खाना प्रचलन में है। अच्छा लिखा है।