नजर नवाज नज़ारा बदल न जाये कही।
जरा सी बात है मुँह से निकल न जाये कही,
वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है ,
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाये कही।
यों मुझको खुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन ,
ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाये कही ।
तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है ,
तमाम उम्र नशे में न निकल जाये कही,
कभी मचान पे चढ़ने कि आरजू उभरी ,
कभी ये डर के ये सीढ़ी फिसल न जाये कहीं ।
ये लोग होमो हवन में यकीन रखते है
चलो यहाँ से हाथ जल न जाये कही । ।
हिन्दी
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7 comments:
कभी मचान पे चढ़ने कि आरजू उभरी ,
कभी ये डर के ये सीढ़ी फिसल न जाये कहीं ।
राज भाई
क्या कहूँ आज पहली बार आप के ब्लॉग पर आया और आप की इस ग़ज़ल से बंध गया. लफ्जों का इतना सुंदर इस्तेमाल होते बहुत कम देखने में आया है. आप के पास ज़ज्बात और लफ्ज़ दोनों हैं और आप इनका बखूबी इस्तेमाल भी करते हैं. बहुत अच्छा लगा आप को पढ़ कर.
नीरज
क्या बात है!!
बहुत बढ़िया!
सुंदर पंक्तियाँ
बहुत लय है इन पंक्तियों में बन्धु!
वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है ,
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाये कही।
बहुत ख़ूब! ग़ज़ल पढ़ने में मज़ा आगया।
महावीर शर्मा
नया वर्ष आप सब के लिए शुभ और मंगलमय हो।
महावीर शर्मा
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