Friday, July 20, 2007

बुझता नही धुँआ

आंखो मे जल रहा है क्यों बुझता नही धुँआ . /
उठता तो है घटा सा बरसता नही
धुँआ .

चूल्हा नही जलाए या बस्ती ही जला गयी
कुछ रोज़ हो गए है अब उठाता नही धुँआ .

आंखो से पोंचा se लगा आंच का पत्ता
यूं फेर लेने से छुपता नही धुँआ .

आंखों से आंसुओं के मरासिम पुराने है .
मेहमान ये घर मे तो चुभता नही धुँआ .

2 comments:

Anonymous said...

Simply loved this ghazal.

Keep writing.

Neeraj Rohilla said...

कुछ शब्द आपसे छूट गये थे तो पूरे कर रहा हूँ ।

आंखो मे जल रहा है क्यों बुझता नही धुँआ . /
उठता तो है घटा सा बरसता नही धुँआ .

चूल्हा नही जलाए या बस्ती ही जला गयी
कुछ रोज़ हो गए है अब उठाता नही धुँआ .

आंखो से पोंछ्ने से लगा आंच का पता
यूं चेहरा फेर लेने से छुपता नही धुँआ .

आंखों से आंसुओं के मरासिम पुराने है .
मेहमान ये घर मे आयें तो चुभता नही धुँआ .