अभी कुछ दिन पहले मायावतीजी के मूर्तियों(फिजूलखर्ची) पर १ छोटा सा डिस्कसन एक मित्र के साथ चल रहा था.. लेकिन बात काफी लम्बी खीच गयी. ...फिर हम लोग उस नवीन कांशीराम स्मारक के चार-दिवारी पर बैठ गए (जो वी.आई.पी रोड पर है). मायावती के अनुसार इन पार्को और स्मारकों पे दलित समुदाय आकर बैठेंगे और अपने विकास का परिक्षेप में मंथन करेंगे....लेकिन ये बात भी सत्य है की इन स्मारकों पर कोई भी दलित नहीं आयएगा विकास का मंथन करने...यहाँ कुल्फी, आइस-क्रीम के साथ प्रेमी-युगल अपने प्यार रूपी अमराईयों में गोते लगायेंगे .......
आज दलितों का सबसे ज्यादा अपमान होता है..इन मूर्तियों के नाम पर ....मेरा तो ये मानना है की इससे आंबेडकर जी की भी अमर आत्मा संतुस्ठ नहीं होगी, मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं अपने स्कूल में पढता था तो उन दिनों गाँधी जी, सुबास, आंबेडकर जी सबके बारे में बड़े ही गर्व से कुछ न कुछ टीचर सुनाते थे...लेकिन आज जाती-वाद, दलित-वाद के नाम पर आंबेडकर जी की भद्द पिट गयी ..आंबेडकर जी ने जो भी दलितों के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन किये वो सब उनकी मूर्तियों में दब गया....वजह सिर्फ ....राजगद्दी.....सत्ता........अभय दुबे जी के एक लेख में सही और सटीक लिखा है की ...राजसत्ता की कोठरी कालिख से भरी होती है। सामाजिक क्रांतियों की किरणें कितनी भी प्रखर क्यों न हों, राजनीति की कालिख से होकर गुजरने पर आम तौर पर उनकी चमक मंद होकर ही रहती है। राजसत्ता के साथ ज्यादा हेल-मेल का मतलब होता है सामाजिक क्रांतियों की धार का कुंद हो जाना। महाराष्ट्र के बाद अब उत्तर प्रदेश में आंबेडकरवादी सामाजिक क्रांति इसी समस्या से गुजर रही है। इस सामाजिक क्रांति के केंद्र में दलितों और उनके समुदायों द्वारा अपनी पहलकदमी पर लगाई जाने वाली आंबेडकर की मूर्तियां थीं। जैसे ही इन्हें लगाने का जिम्मा दलितों की राजसत्ता ने उठाया, ये मूर्तियां बाबा आंबेडकर के अनुयायियों के लिए सशक्तीकरण का स्त्रोत न रहकर, समग्र दलित परियोजना के लिए परेशानियों का सबब बन गईं। इन राज नेताओं के देश का बंटाधार कर दिया, ये सबसे बड़े झूठे है...विकास के नाम पर पता नहीं कितने झूठे वादे करते है..वैसे भी हमारे देश में सच बोलने की परंपरा नहीं रही है। सच बोलने वाले केवल एक महान व्यक्ति का जिक्र आता है -राजा हरिश्चंद। सत्य बोलने के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं सहा। लेकिन उनके बारे में ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि उन्होंने कभी अपनी निजी जिंदगी के बारे में सच बोला हो। उन्होंने कभी भी खुलासा नहीं किया कि उनके अपनी पत्नी के अलावा कितनी महिलाओं से संबंध थे, उन्होंने अपनी पुत्री से कम उम्र की कितनी लड़कियों से संबंध बनाए थे, उन्होंने पांच सितारा सरायों से कितनी सफेद या अन्य रंगों की चादरें चुराई थीं। लेकिन इसके बावजूद उन्हें सत्यवादी का खिताब दे दिया गया जो दरअसल इस बात का सबूत है कि उनके जमाने में सच बोलने वालों का कैसा भयानक अकाल था। ये झूठ बोलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है ....और सतत चलती रहेगी.....अब दलितों के उत्थान के लिए मूर्तियाँ लगी..फिर किसी सवर्ण के हाथ में सत्ता आएगी तो सवर्णों के उत्थान के लिए मुर्तिया लगवाएगा , फिर किसी ओ.बी.सी. वाले के हाथ सत्ता आएगी वो ओ.बी.सी उत्थान के लिए मुर्तिया लगवाएगा ......प्याज, टमाटर , दाल के भावः बढे इनको क्या लेना-देना....बस सब मुर्तिया देख कर पेट भर लेंगे....
खैर.....बशीर साहब के ये शेर जो कहीं न कही किसी सामाजिक क्रांति को वापस लाने की पुरजोर कोशिश है....
दुआ करो की ये पौधा सदा हरा ही लगे उदासियों से भी चेहरा खिला -खिला ही लगे ,
ये चाँद तारों का आँचल उसी का हिस्सा है कोई जो दूसरा उडे तो दूसरा ही लगे.
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे.
अजीब शख्स है नाराज़ होके हंसता है मैं चाहता हूँ खफा हो तो वो खफा ही लगे.
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा तो लगे .
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