अगर आप दिल्ली,मुम्बई,कलकत्ता जैसे शहरों मैं रहते है,और धक्का मारने में एक्सपर्ट नही है तो, आप हरदम धक्का खाते रहोंगे,यहाँ ऐसे-२ लगते है,धकापेल होती है कि देखने वाला भी धकिया जाय.दिल्ली की मेट्रो का धक्का हो या मुम्बई की लोकल ट्रेन का या कलकत्ता के ट्राम का धक्का,हम तो कहते है कि,धक्का खाते-खिलाते,धक्का मारते-मरवाते हम इतने कुशल हो गए है कि अगर “धक्का मार विश्वकप” प्रतियोगिता हो जाए तो यह सुनिश्चित है कि धक्का मार विश्व कप के विजेता हम ही होंगे!
इन दिनों दिल्ली में ब्लू लाइन बसों का धक्का बहुत प्रसिद्ध हो रहा है.दिल्ली सड़कों पर सुरक्षित यात्रा कर लेना पूर्व जन्म का पुण्य समझना चाहिए!
भारतीय धक्के विश्व-प्रसिद्द हैं, यहाँ धक्के की बिभिन्न प्रजातियाँ होती हैं, जैसे तन का धक्का, मन का धक्का, बीबी का धक्का, बॉस का धक्का, इश्क का धक्का, अदाओं का धक्का, जुल्फों का धक्का, सिफारिश का धक्का,प्रमोशन का धक्का,राजनीती का धक्का ,आदि....
यहाँ धन का धक्का सबसे प्रभावशाली माना जाता है.अगर धन का धक्का न लगे तो फ़िर काहे की नौकरी , कौन सी नौकरी. क्यों की धन के धक्को में झूलती नौकरी अच्छी लगती है.जहाँ कोई धक्का काम नही आता वहां धन का धक्का काम करता है.बीबी की नाराज़गी हो या प्रेयशी के रूठ जाने का धक्का , अगर आप के पास धन का धक्का है तो बिल्कुल परेशां होने की जरुरत नही है.
सब धक्कों से सर्वश्रेष्ठ धक्का कछार कन्याओं का धक्का होता है.क्यों की जब ये कमसिन लड़कियां धक्का लगाती है तो रोयें -रोयें में उस धक्के का एहसास होता है.और जब ये धीरे से धक्का मार के आगे निकल जाती हैं तो डूब मरने की नौबत आ जाती है.इन धक्को का मजा लेना हो तो इनकी अदाओं के धक्के,जुल्फों के धक्के खाईये फिर देखिये इन धक्को की इतनी लत पड़ जायेगी की धक्के खाते फिरोगे.
बहुत पहले एक गाना था "लगा झुलनिया का धक्का ,बलम कलकत्ता पहुँच गए...." जरा देखिये , इस कन्या के झुलनिया का धक्का ऐसा था की इनके प्रियतम सीधे कलकत्ता पहुँच गए. गज़ब की रही होगी ये कन्या और कितना सधा, और सटीक होगा इसकी झुलनिया का धक्का .झुलनिया से धक्का लगाने वाली यह कन्या कितनी एक्सपर्ट रही होगी की उसने इतने अनुमान से सही कोणीय विस्थापन और वेलोसिटी पॉवर से धक्का लगाया होगा की उसके बालम सीधे कलकत्ता पहुँच गए और कहीं रास्ते में अटके भी नही. बैज्ञानिकों द्वारा छोड गए रोकेट भी कभी-२ बीच रस्ते से टपक जाते हैं.जबकि कई सौ सालों से इस पर रिसर्च चल रही है. अभियंताओं द्वारा बनाये गए बाध, पुल, सड़के, फ्लाई-ओवर भी गिर जाते हैं , लेकिन इस बांकी छोरी के झुलनिया का धक्का कितना सही रहा होगा.
अगर आज झुलनिया पहनने वाली अभिनेत्रियों का सहारा लिया जाए तो आवागमन कितना आसान हो जायेगा, पेट्रोल, पैसे और समय की बचत होगी.इधर से झुलनिया का धक्का लगवाया उधर गए , और उधर से धक्का लगवाया इधर आ गए. आफिस जाना हो तो , घर से झुलनिया का धक्का लगवाओ ,और ऑफिस से झुलनिया का धक्का लगवाया तो घर पहुच गए.कितना उपयोगी होगा ये झुलनिया का धक्का ऑफिस की लेट-लतीफी भी कम हो जायेगी.देर रात रुक-कर ओवर-टाईम भी कर सकते हैं,क्यों की कनवेंस की समस्या तो झुलनिया के धक्के ने खतम ही कर दी.
लेकिन इस के लिए कम्पनियों को झुलनिया वाली बालाओं को हायर करना पड़ सकता है.तब पेपरों आदि में विज्ञापन निकलेगा की --
आवश्कता है तीन झुलनिया वाली लड़कियों की
योग्यता- धक्का मारने में निपुण , (ख़ुद की झुलनिया होना आवश्यक है.)
नोट- योग्य झुलनिया वाली बाला को इंसेंटिव तथा फ्री मील्स.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
अगर आज झुलनिया पहनने वाली अभिनेत्रियों का सहारा लिया जाए तो आवागमन कितना आसान हो जायेगा, पेट्रोल, पैसे और समय की बचत होगी.
हा हा!! मजेदार.
पढ़कर मजा आगया…
बिल्कुल नई सोंच!!!
मजेदार:))
अरे बन्धु, चर्चगेट पर आधुनिकायें धक्का मारते आगे निकल जाती थीं और हम भकुआ बने देखते रह जाते थे। अच्छी याद दिलाई।
baah bhai baah ka article hai!!
Post a Comment