Saturday, July 18, 2009

छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है

४ दिन पहले एक मीटिंग के सिल-सिले में इलाहाबाद जाना हुआ, शाम को ७ बजे लखनऊ से लॉन्ग ड्राइव करने के तत्पश्चात इलाहाबाद पंहुचा. साथ में मेरा एक जूनियर भी था ...सोचा की रात यही किसी होटल में गुजार लूं फिर अगले दिन सुबह ८ बजे इलाहाबाद से ५० की.मी दूर मेजा में मीटिंग थी ...पर मुआ डर गया इस डर से की कहीं ९ बजे ने निंद्रा टूटे और मीटिंग छूट जाए ...फिर ये प्लान किया की ..मेजा में एक मेरे मित्र है ...उन्ही के घर चलता हूँ ...रात वही गुजरेगी ...
नैनी के पूल क्रॉस करते ही ही मेरा ड्राईवर बोला ....सर, एक बात बोलूँ बुरा तो नहीं मानोगे ....मैंने अच्छे बच्चे की तरह सिर्फ सीर हिलाया ....और मौन स्वीकृति दे दी ...."सर, मेजा में ही हमारा घर है ...और मेरी इच्छा है की आप हमारे घर चलते "......बहुत रिक्वेस्ट करने लगा
"मुस्कान पाने वाला मालामाल हो जाता है पर देने वाला दरिद्र नहीं होता। " यह सोच कर मैंने उसके घर चलने की हामी भर दी...

रात के ११ बजे उसके गाँव पंहुचा...वैसे भी गाँव में लोग ८-९ बजे तक सो जाते हैं....लेकिन उस दिन तो उनका रतजगा था...क्युकी उनके बच्चे का बॉस जो उनके घर आ रहा था....छोटी सी टूटी सी झोपडी से माता जी निकली ....चेहरे पे अमोल प्यार और मुस्कान लिए ...जैसे की हृदय में छुपा लेना चाहती थी मुझको ....मैंने ऐसी आव-भगत अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में कभी नहीं देखि .....जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं।
मुआ शहरो में तो सिर्फ ह्युमिदिती होती है ...फोग होता ....फ्लू होता ....जरा इन गाँव में गरीबो के घर आके तो देखो कितना ...स्नेह, प्यार...और अपनापन होता है ....
छोटे से संकीर्ण झोपडी में ....सभी बैठे थे ....लेकिन कोई किसी से बात नहीं कर रहा ...सभी मेरी तरफ देख रहे थे .....और जैसे ये सोच रहे हो ....."बैठा हूँ इस गरज से , शायद हवा चले" ...और आंटी जी ....मेरे पास आकर मुझे पंखा झलने लगी ....ऐसा लग रहा था की ना जाने कितना प्यार दे देना चाह्ती हो मुझको ....और ये भी सच है ..."विश्व के निर्माण में जिसने सबसे अधिक संघर्ष किया है और सबसे अधिक कष्ट उठाए हैं वह माँ है।"....माँ की ममता का कोई मोल नहीं है ....फिर मैंने बात-चीत खुद शुरू की ....और साथ ही साथ मैं ये भी महसूस कर रहा था की ...शायद वो ये देखना चाह रहे हो की ..आखिर बॉस कैसे बोलते है ..क्या बोलते है...अपने अनुभव का साहित्य किसी दर्शन के साथ नहीं चलता, वह अपना दर्शन पैदा करता है। ...
खैर, रात के १ बजे तक मैंने उन लोगो से काफी बात-चीत की..बहुत सारा प्यार मिला...बहुत रेस्पेक्ट .....लेकिन पता नहीं क्यों मुझे गरीबी सबसे ज्यादा गाँव में ही दिखती है....
गाँव में कई लोग अभी भी ताँगे और बैलगाडी से पचासों किलोमीटर की दुरी तै करते है .कई लोगों ने उनकी तस्वीर कैनवास पर उतारकर जमाने भर को दिखाई और खूब ख्याति पाई. कुछ ने लिखे लंबे-लंबे गाँव की गरीबी पर उपन्यास लिख कर खूब वह-वही लूटी ....पर गरीब फिर भी गरीब ही रह गए..और लिखने वालों के नाम पर ढेर सारे इनाम आ गए...पर गरीब तो इस उम्मीद पर रह गए की..."ज़िंदगी तो उम्मीद पर टिकी होती हैं।"....शायद कभी सबेरा हो ..
निदा की एक ग़ज़ल कही न कही मेरे दिल के बहुत करीब है.........---------

हर घडी खुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हू मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछू की कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूंढ़ता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गई ख्वाब सुहाना देखे
जगता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महाफुउस है पत्थर मेरा

4 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

सही कहा है आपनें ,सहमत.

Gyan Dutt Pandey said...

ओह, यह तो मेरा तहसील है।
बहुत समय से गया नहीं गांव।

Murari Pareek said...

बहुत सही कहा आपने गरीबों के ऊपर कितनी कवितायेँ ग़ज़ल उपन्यास लिखी गई | पर गरीब वहीँ का वहीँ | शायद गीत ग़ज़ल उपन्यास को इनकी जरूरत रहती है !!

Anonymous said...

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